बुधवार, 1 नवंबर 2017

इन दिनों..

दोस्ती मुमकिन नहीं है 'मैं' के मारे,
वक्त के मोहताज हैं साथ सारे इन दिनों..

नींद के आगोश में हैं ख्वाब सारे,
चाहतें चुप सी खड़ी हैं हाथ बाँधे इन दिनों..

चल चलें, छोड़ आएं प्रीत के गीत सारे,
मन को यूँ चुभने लगे हैं मीत सारे इन दिनों..

धूप को मिलती नहीं अब छाँव कोई,
ज़िंदगी आसां नहीं है इस किनारे इन दिनों..

-अक्षिणी

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