शुक्रवार, 12 मई 2017

*आप के कीड़े..*


आप के कीड़े कुलबुलाने लगे हैं,
भीतर बाहर बिलबिलाने लगे हैं.
सत्ता की गोंद से चिपके थे सारे,
छत्ते से दूर छिटियाने लगें है..

कुर्सी के पठ्ठे थे सारे के सारे,
सड़कों पे अब गरियाने लगे हैं.
झाडू की सींकों से बँधे ये
इक दूजे को लतियाने लगे हैं..

मलाई के चाटनहारे सब
नया दही जमाने लगे हैं..
भेदी ये सारे के सारे
केजू की लंका ढहाने लगे हैं..

कलई जो उतरी तो
बस छटपटाने लगे हैं..
गिरगिट के ताऊ सब
असली रंग दिखाने लगे हैं

माल पे फेर के झाड़ू ये सारे
जनता से आँखें चुराने लगे हैं..
जिस हाँडी में खाते थे सारे,
चौराहे पे ठिकाने लगाने लगे हैं..

धरने तमाशे इनके सारे
हमें अब गुदगुदाने लगे हैं..
दिल्ली के दिलवालें अब
ठेंगा दिखाने लगे है..

अक्षिणी भटनागर

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