सोमवार, 27 मार्च 2017

भीड़ में तनहा हूँ यारों..

भीड़ में तनहा हूँ यारों, टूटता लमहा हूँ यारों
हर तरफ रोशन हैं रातें, डूबता तारा हूँ यारों

जीत के मेले सजे हैं, बारहा हारा हूँ यारों
टूटते सारे किनारे ,सूखता दरिया हूँ यारों

रौनकें रूठी चली यों, खामखां हैरां हूँ यारों
खो गए साथी सवेरे, शाम का मजमा हूँ यारों

हर सूँ खिलती है सदाऐं,आतिशी सेहरां हूँ यारों
मरने की हिम्मत नहीं है, इसलिए ज़िंदा हूँ यारों

धूप से रुसवा नहीं हूँ,सायों का मारा हूँ यारों
गैरों से शिकवा नहीं है,अपनों से हारा हूँ यारों

अक्षिणी

है अगर जो साल नया तो..

चाह नई हो राह नई हो,
जीने का उल्लास नया .
चेहरों पे मुस्कान नयी हो,
फूलों पे मधुमास नया .
            मिट्टी रूखी न रहे,
            और पत्ते सूखे न रहें.
            नहरें खाली ना रहें,
            और बच्चे भूखे ना रहें.
पानी आँखों में नहीं हो,
बाली दानों से भरी हो.
हो नहीं नफरत कहीं पे,
प्यार से बस्ती सजी हो.
           है अगर जो साल नया तो...
           साज नया हो राग नया हो,
           सुबह का हर ख्वाब नया .
            खुशियों का आगाज़ नया हो,
            और जीने का अंदाज नया..
चाह नई हो राह नई हो,
जीने का उल्लास नया...

अक्षिणी भटनागर
(साहित्य धारा, आकाशवाणी जयपुर )
सोमवार ,
2 जनवरी 2017..

शनिवार, 25 मार्च 2017

नज्म-ए-खाट..

खाट लाट की हो या भाट की,
बस होनी चाहिए पूरे पाट की.

खाट लोहे की हो या काठ की,
होती है गवाह खूब ठाठ-बाट की.

खाट पै होती चर्चा लाट की,
जनता की और राज पाट की.

खाट लेटी हो तो खर्राट की,
खाट खड़ी हो तो खुर्राट की.

खाट की बात बाट-बाट की,
खाट की जात घाट-घाट की.

बहुत हो गई बात खाट की,
इब खाट सर पै ले नाट गी..

अक्षिणी भटनागर

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

अनर्गल..

आज का मीडिया..
लोकतंत्र का तथाकथित चौथा स्तम्भ.
ना पठन ना चिंतन, ना कोई मनन,
बस धाराप्रवाह विष वमन.
ना शोध ना अध्ययन, ना विवेचन,
बस चढ़ते सूरज का यश गायन.
ना भाषा ना सृजन, निरा विज्ञापन,
बस नाम बड़े और छोटे दर्शन.
ना संचार ना विचार बस प्रचार,
झटपट लोकप्रियता का आरोहण.
न प्रयास न सायास बस कयास,
शिखर छूने की चाह बस अनायास.
ना संवेदन ना समर्पण,
बस अविराम अनर्गल शब्द वमन.
अतिशयोक्ति में मिथ्या आरोपण,
फिर खंडन और महिमामंडन.
इन स्वघोषित विद्वानों का
क्यों कर हो अभिनंदन..

अक्षिणी भटनागर

गुरुवार, 23 मार्च 2017

एक था ...

एक था केजरीवाल..
धरनाधीश हुआ करता था जो कमाल,
अपने ही चेहरे पे मला करता था गुलाल.

एक था केजरीवाल..
इन दिनों जाने कहाँ गई उसकी जुबान,
निकाला करता था बहुत बाल की खाल.

एक था केजरीवाल..
बहुत करता था जो फालतू के सवाल,
अपनी ही धोती फाड़ के कर देता था रुमाल.

एक था केजरीवाल..
दिल्ली का कर दिया था जिसने बुरा हाल,
पीएम ना बन पाने का जिसको था  मलाल.

एक था केजरीवाल..
बहुत बजाया करता था अपने गाल,
थप्पड़ मार के रखता था जिन्हें लाल.

एक था केजरीवाल..
जाने कैसे गया था जो IIT निकाल,
सबकी डिग्रियों की करता था जो पड़ताल.

एक था केजरीवाल..
बात की बात में कर देता था जो बवाल,
हर दम जूती खाता था जिसका कपाल.

एक था केजरीवाल..
खाँसी और खुजली का चल अस्पताल,
इन दिनों जिसकी बदल गई है चाल.

अक्षिणी भटनागर



मंगलवार, 21 मार्च 2017

कविता..

ये जीवन एक कविता है..

दोहों और सवैयों में,छंदों और चौपाइयों में,
गीतों और गवैयों में,बोली और बलाइयों में,
जीवन एक कविता है..

सोज में डूबे गीतों की, प्रीत की उलझी रीतों की,
लूट सके जो नींदों को,उन मोह के बंदी मीतों की,
जीवन एक कविता है..

भावों की और उमंगों की,शोलों और पतंगों की, 

मस्तों और मलंगों की,उर की पीर तरंगों की,

जीवन एक कविता है..

अक्षिणी भटनागर

सोमवार, 13 मार्च 2017

परवाह नहीं..

हो राह सही, बस चाह यही,
दुनिया की मुझे परवाह नहीं.

मन साफ रहे और साफ कहे,
तेरा ध्यान धरे सच बात कहे.

अक्षिणी भटनागर

रविवार, 12 मार्च 2017

फागुन

रुत आई है देखो फागन की,

रंग खेलन की, रस बरसन की,
रस लूटन की, मन हरसन की,
तन रंगन की, मन रंजन की,
मनमोहन छवि नंदनंदन की,
रुत आई है देखो फागन की.

हाथ गुलाल जो श्याम लिये हो ,
लाल गुलाब सों गाल किये हों.
फाग उड़े फिर राग रचे,
राधा के संग जो श्याम सजे.
रुत आई है देखो फागन की..

टोरी चले जब लरिकन की,
गारी पड़े फिर गोपियन की.
होरी मचे इन गलियन में तो,
बोली उड़े फिर लठियन की.
रुत आई है देखो फागन की..

तन नर्तन की , मन हरसन की..
रस लूटन की , रंग बरसन की..
रुत आई है देखो फागन की.

अक्षिणी 

शनिवार, 11 मार्च 2017

मृगतृष्णा..

मृगतृष्णा सा मेरा जीवन,
ढूंढे तुझको मेरे भगवन्.

मोह माया के छूटे कंगन,
तेरी शरण सब मेरे भगवन्.

ये जन्मों के झूठे बंधन,
तुझ से जुड़े अब मेरे भगवन्.

अक्षिणी भटनागर

गुरुवार, 9 मार्च 2017

सब कुछ संभव है..

हाँ मैंने यह बचपन से जाना है,
मूर्खों से मुझको ना बतियाना है.
हाँ प्रश्न तुम्हारा बचकाना है पर,
अब उत्तर मुझको समझाना है.
इस भारतभू पर हे मूढ़मतै,सब कुछ संभव है..

जहाँ अध्धों-पव्वों मे चुन जाते नेता,
और बन जाती हो सरकारें.
जहाँ रक्षा सौदों में हो जाते हों समझौते,
और बिक जाती हों तलवारें.
उस भारतभू पर हे मूढ़मतै,सब कुछ संभव है..

जहाँ दिग्विजय ही दिशाहीन हो,
सठियाने में ब्याह रचाते हों .
जहाँ नब्बे की उमर में बौराए हो,
नेता मंत्री बाप बन जाते हों .
उस भारतभू पर हे मूढ़मतै,सब कुछ संभव है..

जहाँ तुम जैसे डकार जाते हो,
कन्हैया की अभिलाषाओं की सैंवय्याँ,
और बेशर्मों से चटखार जाते हो,
मेहर की महत्वाकांक्षाओं के घेवर.
उस भारतभू पर हे मूढ़मतै,सबकुछ संभव है..

जहाँ बूढ़े बच्चों को बहलाने में तुम,
हो जाते हो नतमस्तक.
जहाँ राजमाता और राजपुत्र,
विदेश में मनाते हों उत्सव.
उस भारतभू पर हे मूढ़मतै, सब कुछ संभव है..

जहाँ चुनाव आयोग महीनों तक,
देश को रख लेता हो बंधक.
जहाँ चारे,तोप मशीनों तक,
बाड़ों को भी खा जाते हों रक्षक.
उस भारतभू पर हे मूढ़मतै, सबकुछ संभव है..

इस मातृभूमि के यश गौरव के,
तुम भी तो सौदाई हो.
मातृभूमि के उत्थानपतन के,
तुम भी तो उत्तरदायी हो.
उस भारतभू पर हे मूढ़मतै, सबकुछ संभव है..

अक्षिणी भटनागर

तेरी जय हो..

साम दाम भय भेद के परे
मेरे ईश्वर तेरी जय हो.

मेरे सच सब तू जाने और
मेरे भ्रम सब तेरे भ्रम हो.

मेरे दुख अब तेरे दुख हैं,
मेरे सुख स्वर तेरी लय हो.

मेरी चाहें तुझ तक पहूंचे,
मेरी सांसे तेरी मय हो.

मैं हारूं तो तू हारे और,
तेरी जय में मेरी जय हो.

मेरे वंदन तुझको अर्पण ,
मेरा मन अब तेरा दर्पण हो.

अक्षिणी भटनागर

मंगलवार, 7 मार्च 2017

हर दिन तेरा हो..

उन्मुक्त हो तुम,मनमुग्ध हो,
खुशियों भरा हर स्वर तेरा हो.
नारी हो तुम, जी लो जी भर,
खिलता महका हर दिन तेरा हो.

अक्षिणी भटनागर

रहने दो..

लौटा दो वो मुस्कानें
जो छीनी तुमने देवी कहकह
जीने दो मुझे मानवी बन कर
रहने दो अब पूजन अर्चन.

मन चाहे अब नेह का आँचल,
खुलने दो सब मान के बंधन.
देवी है ना महारानी ये,
रहने दो अब ये सम्बोधन.

जीने दो मुझे मिट्टी बन कर,
नहीं चाहती मैं ऊँचे आसन.
उड़ने दो अब पाखी बनकर,
रहने दो अब झूठे चंदन.

जी सकती हूँ अपने बल पर,
रहने दो अब जन्मों के बंधन.
है मान मुझे अब अपने पर,
रहने दो ये रिश्तों के बंधन.

अक्षिणी भटनागर

बुधवार, 1 मार्च 2017

नापाक कोशिश..

सयाने हो गये हैं जो लोग सब,
बच्चों को बहकाने की कोशिश है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
झुनझुना फिर हाथ में है.
मुल्क की मुख़ालफत का
सबक फिर पाठ में है.

जल गई हैं मशालें बगावत की,
फिर मुल्क को जलाने की कोशिश है.

चुभ रहा है कुछ आँखों को,
वतनपरस्ती का जुनून.
अरसा हो गया है बस्तियों में,
उजड़ा नहीं  सुकून.

कई दिनों से मायूस सी है सियासत,
कोई कन्हैया उगाने की कोशिश है.

मासूम निगाहों में सज गये हैं,
खुशियों के मंजर.
नन्हें हाथों में दिखते नहीं हैं,
नफरत के खंजर.

ज़ुबानें ढूंढ रही है नये तराने
ख़िलाफत के गीत गाने की कोशिश है.
संभल जाओ मुल्क के निगहबानों,
बच्चों को बरगलाने की कोशिश है..

अक्षिणी भटनागर