मंगलवार, 31 जनवरी 2017

क्यों..?

अभूतपूर्व दृश्य है कपोल कल्पना का
एक च्यूइंग-गम छाप निर्देशक
और उनके खयालों में बसा आततायी,
जिसके सपनों में दिखे प्रीत के क्षण,
सदियों से जो था लूटेरा
वो कर रहा आलिँगन,
आलिँगन भी किससे?
जिसके सतीत्व का साक्षी
रहा स्वयं समय..
सृजन की स्वतंत्रता है ये
या उच्छृंखलता?
या दुस्साहस..?
और क्यों..?

-अक्षिणी भटनागर-

रविवार, 29 जनवरी 2017

गुमशुदा


तेरी ख़ामोशी को फलसफा कर दें,
ज़ुबा न सही नज़र से बयां कर दें,
जमाना इस कदर शातिर है 'इंतिहां,'
सरे अक्स तुझे गुमशुदा कर दे..

अक्षिणी भटनागर

सुबह

रात जितनी भी बड़ी हो
सुबह उतनी ही हसीं है..
फिर सुबह का गीत गाएं
और तिमिर को भूल जाएं..

-अक्षिणी भटनागर

शनिवार, 28 जनवरी 2017

अगर तुम न होते..

अगर तुम न होते...
साथ रहता है पल छिन
तेरी सुबह का अहसास
अलसाई सी दोपहर और
सुरमई शाम का अंदाज
जी लेते हैं किसी तरह
तेरी उम्मीद में मेरे सरकार
तेरे आने से पहले तेरे जाने के बाद..
ये ज़िंदगी की जद्दोजहद,
सुबह से शाम की कशमकश,
तेरे बगैर मुमकिन नहीं थी मेरे यार
फिर लौट आने पै तेरा शुक्रिया इतवार..
जीते हैं बस इस इतवार से उस इतवार..

अक्षिणी भटनागर

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

रानी

बाहर बैरी बोल रहा था
राणा की ताकत तोल रहा था,
न्याय दंड भी डोल रहा था
लहू राज का खौल रहा था,
यवनों ने रजपूती शान उगाही थी
माँ बहनों को लाज बचानी थी
राह न कोई खुल पाई और
बैरी की टोली चढ़ आई थी
बात मान पर ठन आई थी
आन बान पर बन आई थी
साथ सहेली ले बैठी और
अर्घ्य आग को दे बैठी
सुलग उठी थी चिंगारी और
लपक रही थी लपटें भारी
धधक रहे थे अंगारे और
कूद पड़ी थी ललनाऐं .
रूपगर्विणी मान रक्षिणी नारी थी
नाम पद्मिनी रतन सिँह की रानी थी
देह त्यागती ये एक क्षत्राणी थी
ये गढ़ चित्तौड़ की रानी थी..
दुःखद चित्र था
विषद् दृश्य था
जौहर कोई खेल नही था
गीत संगीत का मेल नही था..

अक्षिणी भटनागर

बुधवार, 25 जनवरी 2017

गणतंत्र ..

जन गण मन को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं. आज के दिन काली पट्टी और काले वस्त्र धारियों को भी हार्दिक शुभेच्छा क्योंकि इसी गणतंत्र ने उन्हें विरोध प्रदर्शन का अधिकार दिया है..

-अक्षिणी भटनागर

मंगलवार, 24 जनवरी 2017

सबक

जिंदगी तुझसे सबक
जिसने सीखा उसने लिखा,
जिसने कुछ नहीं सीखा
उसने क्या ख़ाक लिखा?
मुस्करा के जिया,
गम छुपा के जिया,
बह गया जो आँसू
तो हर आँख में अटका,
जो रिसता रहा भीतर भीतर
किसी को न दिखा..
पल पल बीतता गया,
जीवन घट रीतता गया,
खट्टा मीठा तेरा अंदाज
मन सुमन जीतता गया,
ज़िंदगी तेरा नमक ,
कभी फीका कभी तीखा..
निगाहों में आसमां लिये,
सितारों का जहां लिये,
उड़ता रहा , जुड़ता रहा,
लड़ता रहा , बढ़ता रहा,
ज़िंदगी तेरा सुरूर,
कभी रूखा कभी भीगा..

अक्षिणी भटनागर

गुरुवार, 19 जनवरी 2017

साहित्य सेवा

अजीबोगरीब लिबास और
ऊटपटांग केशविन्यास,
कमसिन हाथों में सिगरेट और
सेल्फी के अंदाज़,
उम्र और जन्म को नकारते
अधेड़ों के पहलू में युवा हसीन,
कोने में उपेक्षित खड़ा साहित्य
माँग रहा तवज्जो की भीख.
ये हर्फों का मेला है किताबों का त्योंहार,
साहित्यसेवा का मौका है निपट व्यापार..

बुधवार, 18 जनवरी 2017

अलल टप्पु..

अप्पु गप्पु और टीपू पप्पु,खूब चलाए चप्पु,
डूबती नैया कौन बचाए दाँव लगाए अलल टप्पु.

ख़ामख्वाह..

ख़ामख्वाह ढूंढते फिरते हैं जीने की वज़ह,
क्या काफी नही है ज़िन्दगी का नशा?
बारहा पूछा करते हैं 'इंतिहा' पीने की वज़ह,
क्या काफी नही है तेरे बगैर जीने का मजा?

मंगलवार, 17 जनवरी 2017

इंसानियत

कह तो दें इंसानियत पे इंतिहां बहुत कुछ,
अगरचे कहीं दिखाई तो दे.
खरीद लेते हैं इसे चंद टुकड़ों में
इसकी बोली कहीं सुनाई तो दे.

हैसियत

चंद कतरे धूप और
चार चुस्कियां चाय की निकाल देती हैं तेरा दम,
"इंतिहा"तेरी हस्ती की बस
इतनी है ऐ सर्द बेदर्द मौसम..

सोमवार, 16 जनवरी 2017

कुर्ता

रा गा खड़ा बाज़ार में कुर्ता फाड़े आज,
इन्दिरा नेहरू रो पड़े आए ना इसको लाज.

रविवार, 15 जनवरी 2017

I m..

I m me.... I love... I care... I believe in myself... I fall... I slip... I smile n move on.... I see... I feel... I touch hearts.... I sing...I dance... I want the moon... I cry... I laugh... I seek... I find... I live for myself.... I work ..I learn.... I try again and again... I m me..I m todays woman...

शनिवार, 14 जनवरी 2017

शिक्षक हूँ मैं..

मिट्टी को आकार देता हूँ,
सपनों को आधार देता हूँ,
सिर्फ एक शिक्षक हूँ मैं,
शिक्षा का उपहार देता हूँ ।
नहीं जानता कितने मूल्य सिखा पाता हूँ,
मानव मन के कितने भेद दिखा पाता हूँ,
कोशिश करता हूँ जोत जगाने की पर ,
नहीं जानता कितनी राह दिखा पाता हूँ.
भोली बोली को भाषा करता हूँ,
बोझिल मन में आशा भरता हूँ ,
जीवन गुत्थी सुलझाने को मैं ,
नित नया तमाशा करता हूँ ।
सहमी आँखें पढ़ लेता हूँ ,
बिखरे मन को सहेज लेता हूँ,
कहने को कुछ नहीं बनाता
पर गीली मिट्टी में छवि उकेरता हूँ ।
बहुत अधिक की चाह नहीं रखता,
सत्य पर अड़ना सिखाता हूँ,
छल प्रपंच की राह नहीं चलता,
मुश्किलों से लड़ना सिखाता हूँ ।
कर्म पर विश्वास करता हूँ ,
धर्म का आह्वान करता हूँ ।
कहने को सिर्फ शिक्षक हूँ मैं,
जीने का अधिकार देता हूँ ।
अक्षिणी

हाथ, कमल और...

आज महावीर,शिव,नानक
इस्लाम के हाथ आये हैं चुनावी जंग में,
कल इंद्र और गणपति के
हाथी आएंगे मैदानेजंग में.
फिर ब्रह्मा विष्णु लक्ष्मी और
सरस्वती के कमल खिलेंगे पंक में,
सवाल ये है कि सायकिल
कौनसे धर्म के देवता चलाएंगे?

गुरुवार, 12 जनवरी 2017

शाश्वत

ना सुख ना दुख,
बस एक यही शाश्वत है.
कभी दौलत की, 

कभी शोहरत की,

इंसानियत से नफरत की,
रोटी के चंद टुकड़ों की,
शर्म से तार-तार चीथड़ों की 
रिश्तों के सौदागरों की ,
नफरत के खूनी दरिन्दों की ,
नुक्कड़ों और चौराहों पे
गिद्धों से मंडराते भेड़ियों की,

बस भूख शाश्वत है,
बस भूख शाश्वत है....

बुधवार, 11 जनवरी 2017

समानता का अधिकार..

Rसुबह-सुबह गरमागरम खबरों के साथ चाय सुड़कते हुए ठंड से हमारी जंग बदस्तूर जारी थी.अचानक पड़ोस का दरवाजा खुला और शाॅल स्वेटर में लिपटी काम वाली बाहर निकली. दायें-बायें देखा और पिच्च्....सड़क पर रंगोली बना द्रुत गति से अगले घर में घुस गई..
हमने भी भीतर का रुख किया ही था कि सब्जी  वाले की पुकार सुनाई दी.हमें बढ़ती महँगाई का अहसास करा वो चलने लगा और पिच्च्....
सड़क पर एक नयी रंगोली बना ये भी चल दिया..
नौ बजे का समय, दफ्तर की तरफ हमारी नियमित फार्मूला वन जारी थी और मन ही मन आगे चल रही लक्ज़री सेडान की मंथर गति को को कोसा जा रहा था कि चमकदार गाड़ी का शानदार दरवाजा खुला, सूट-बूट धारी एक ऐंठी हुई गर्दन आधी बाहर लटकी और पिच्च्....
इस बार की रंगोली के कुछ छींटे आस पास की गाड़ियों तक भी पहुंचे और ठक से कार के दरवाजा बंद हो गया.
गाड़ी अपनी गति से चलती रही और समानता का अधिकार हमारा मुंह चिढ़ा गया. कोने में लगा स्वच्छ भारत का पोस्टर ठहाका मार के हँस पड़ा..

स्वयंप्रज्ञा :

कुछ ना कहो...
बस चुप रहो...
वक्त बोलेगा..

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

बस साँस भर ..

तितलियाँ हैं ये, इन्हैं छू लेने दो सुमन हर,
रश्मियाँ हैं ये, निखर जाने दो क्षितिज पर,
रेशमी उंगलियों से उकेरती हैं आकाश नये,
लड़कियां हैं ये, जी लेने दो इन्हैं बस साँस भर.

बचपन

जाने कैसे बीता करते थे  दिन,
टीवी और मोबाइल के बिन?
किस तरह गुजरती थी वो दोपहर,
कंचों के सहारे व्हाट्सएप के बिन?
बर्फ के गोलों की चुस्कियां और
खट्टी नारंगी की गोलियां,
सतोलियों के सहारे गुल्लियों के संग
वो डोर से उड़ी पतंग
जाने कैसे बीता करते थे वो दिन .
होली की ठिठोलियां और
दीवाली की रंगोलियां,
छत के तारे गिनती रात और
सहेलियों के साथ..कैसे बीता करते थे वो दिन ?

स्वयंप्रज्ञा: वक्त

मंजिले मिलती हैं उन्हैं जो चलें वक्त के साथ
ना वक्त से पहले ना वक्त के बाद...